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मन के कोने



मेरे मन में ढेर सारे कोने हैं
मैं कुछ कोनों को जानता हूँ
और कुछ कोने मुझे

मैं देखता हूँ एक कोना पड़ा है शुष्क
जैसे बहुत गर्मी पड़ी हो इस बार
और एक बूँद भी पानी न बरसा हो
दीवारें सूख गई हैं सड़क तक उड़ आए
उस पत्ते की तरह
जो अब भी उसे उड़ा ले आए झोंके के
लौटने की राह देख रहा है
एक कोना है जिसे झपकी आ गई है
कोई अधूरी कहानी सुनाते सुनाते
और अधूरा रह गया है उसका अधूरापन
छोड़ दिए हैं किसी ने खोल कर दरवाज़े
शायद किसी नहीं आने वाले के इंतज़ार में
वह पगडण्डी चली आई है बेधड़क इसी ओर
जिसके तन पर बने गड्ढों में जितना पानी भरा है
उतनी ही पागल हवाएं भटक गई हैं रास्ता
एक कोना है अँधेरा,
दीवारों पर पसरी है स्याह ख़ामोशी
छत और फर्श सीलन से भरे
किसी धूप की बाट जोह रहे हैं
कहानी के कभी न आने वाले अंत की तरह
थोड़ी ही दूर आगे
किसी ओट में छिपे बैठे उजाले पर
लगा दिया है इच्छाओं ने घात
एक कोना जो दबा था
सपनों के बोझ से
बिखर गया है
दरारें पैदा करते हुए मन की दीवारों में
और वहां से रोशनी आ रही है
मुझे भ्रम है एक और कोने के होने का
जहां का रास्ता मुझे नहीं मालूम
वहां अब बन गया है कोई वर्महोल
और असंख्य आयामों से
लौट आईं हैं गुरुत्व तरंगें
अपने कंपन में तुम्हें लिए
किसी ने छुआ है दीवारों को
और वक़्त थम गया है
मुझे पता चल गया है उस रहस्य का
जिसका पता लगाया होगा
आइंस्टीन ने कभी
किसी प्रकाश किरण के साथ तैरते हुए
मैं अपने मन के अंतरिक्ष में ढूंढता हूँ
तुम्हारे चेहरे का सूर्य
मैं उसकी ऊष्मा से पिघल कर
एक किरण बनना चाहता हूँ
जो तुम्हारे होने की ऊर्जा अपने भीतर लिए
ब्रह्मांड की दीवारों के पार जाकर
अनंत के सफर में गुम हो जाएगी
और देश, दुनिया, ग्रह, आयाम
तलाशते रहेंगे
हमारे एक साथ होने के निहितार्थ

Thursday, 4 May 2017




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