अभी अभी संजीव का उपन्यास पढ़ा - 'फाँस'. इस किताब से गुज़रते हुए जो अनुभूतियाँ हुई हैं, उनमे एक अजीब सा भाव है, कभी मैं जोर से रोना चाहता हूँ और आंसू नहीं निकलते, जहां मौत की वेदनाओं ने भीतर तक गीला किया हुआ है, वहां मुस्कान फूटती है.
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पहाड़ी की ढलान पर एक बनगांव है. उसमे छोटी रहती है और अशोक भी. रहते तो छोटी के पिता शिबू भी हैं, लेकिन पहले कर्ज और अब बेटी की बदनामी, पिता मंदिर के पुजारी और उसकी बिखेरी कुत्साओं की फांस की पकड़ ढीली न कर सके और कुँए में कूद गए, कुआँ इस सूखे का मसीहा है, जब खेत भीतर तक झुलस जाएँ और किसान के दिल तक पहुँचने को एक बूँद पानी न हो, कुआँ खेती के साथ साथ सूखती किसान की जान बचा लेता है अपने जल से, और जब उसमे जल नहीं रह जाता या मालिक की जिजीविषा का जल सूख जाता है , तो वह अपना दामन फैला कर अपने मालिक को मुक्त कर देता है. और भी मुक्तिस्थल हैं विदर्भ में, प्राण सोखती गर्म हवा के मौसम में भी ठंडी छाँव देने वाला खेत के किनारे का बरगद जब यह ठंडक अपने नीचे बैठे किसान को नहीं दे पाता, तो उसे अपनी डाल दे डालता है ठंडा हो जाने को. एक किसान झूल रहा है ऐसे पेड़ से. बड़ी सी आँखें निकली हुई हैं जिन्हें घूर रही है छोटी, छोटी कुछ पूछ रही है उस किसान से शायद. छोटी बहुत कुछ कहना सुनना चाहती है. वह दिन भर ज्ञान-विज्ञान और दुनिया भर की बातें करती रहती है अशोक से, बातें जिनमे जीवन बसता है, आज इस झूलती लाश के सामने खड़ी छोटी चाहती है कि यह जो इंसान झूल रहा है, फीनिक्स हो जाए और धूल झाड़कर उसे घुड़क दे, वह मुस्कुरा लेगी.
यहाँ सुनील है, उसका बेटा बिज्जू(विजयेन्द्र) है, सुनील गाँव का सबसे कर्मठ किसान था, बिज्जू को कैलिर्फोनिया भेजने वाला था. एक प्रयोग किया उसने अपने खेत में, कर्ज लेकर, और बदले में सल्फास मिला. विदर्भ में जो शेतकरी(किसान) छोटी नहीं हो सकता, जो नाना नहीं हो सकता, उसे बस दो चीज़ें मिलती है - फांस या सल्फास. सुनील को सल्फास मिला. बहुतों को फांस. शिबू को कुँए ने गले लगाया था. छोटी की आई शकुन ने अपने पति को खेत में ही दफना दिया ठीक उसी के बगल में जहां शिबू के बैल लालू को दफनाया था. शकुन दलित थी, अब बौद्ध हो गई है, शिबू डरता था. लेकिन दोनों बेटियों कलावती (छोटी ) और सरस्वती ( बड़ी ) का ब्याह हिन्दू घर में हुआ. छोटी के ससुराल बिजली नहीं थी. गाँव की नई बहू ने हिम्मत दिखाई तो बिजली आ गई. घरवालों को यह बात पसंद नहीं आई. छोटी सब कुछ छोड़ कर चली आई.
नाना अपने मरियल बैलों और खटारा बैलगाड़ी लेकर आसपास के गांवों में चहकता फिरता है. अपनी बीवी छोड़कर चली गई, पड़ोस की महालक्ष्मी दो जेवर की रोटी दे देती है, और बदले में वह उसके खेत भी जोत देता है. नाना के पास खोने को कुछ भी नहीं है, शायद इसीलिए वह कमज़ोर नहीं होता, मौत की गंध घुली इस हवा में भी नाना सबसे चुहल करते रहता है, उसे उदास किसीने नहीं देखा. उसकी हिम्मत ही है जो बड़े बड़े जानकारों को भी वह अपनी साफ़ बातों से चीर देता है. विजयेन्द्र उसे अपने साथ ले आया है कृषक आत्महत्या पर शोध करने के लिए जिसे पूरा होने पर वह कैलिर्फोनिया भेजेगा.
विजयेन्द्र और उसके साथियों ने मिलकर गाँव में किसानों की समस्याओं पर एक सेमिनार आयोजित कराया है- ‘मंथन’, वैज्ञानिक आए हैं, शोधार्थी आए हैं और बड़े लोग आए हैं. गाँववाले देख रहे हैं कि कैसे वैज्ञानिकों ने एक पौधे में जुगनू का जीन मिलाया है और जब भी पौधे को भूख या प्यास लगती है वह चमकने लगता है. एक किसान मुस्कुराता है- हमें अपने पौधों की भूख प्यास बिना नीली रौशनी के भी पता चल जाती है. मंथन में मंत्री और बैंक मेनेजर भी आतें हैं, विरोध होता है, शोर होता है, विजयेन्द्र की दुर्घटना होती है और दूर दिल्ली में किसान आत्महत्या पर बोल रहे मंत्रीजी को किसान हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं.
इन सब के बावजूद छोटी देखती है कि खेत का वह टुकड़ा जहां लालू और उसके पिता शिबू को गाड़ा गया था, लहलहा रहा है. शायद उसके पिता की हड्डियों का चूरा खाद बन गया है या उसका वडील ही उग आया है उन पौधों में और मुस्कुरा रहा है कि उसके होते वह खेत सूखने नहीं देगा. विजयेन्द्र आत्महत्या की तमाम वजहों पर सोच रहा है और उसके वडील की लाश बार बार आँखों के सामने घूम रही है, मौत का तांडव हो रहा है, इतने में छोटी ने एक चुम्बन धर दिया है बिज्जू के अधरों पर जीवन से सराबोर, इस गाँव में जीवन दूर से तड़पाता है और मौत बांहों में भर लेती है, आज जीवन पास है, जीवन में वादें हैं, यादें हैं, एक याद छोटी की भी है, बांस के नीचे मुस्कुराते बतियाते चूमा था अशोक ने भी उसे, जीवन मिटता नहीं कभी उसके भीतर, गहरा होता है उसके संघर्ष के साथ साथ. आज अशोक की आवाज़ आई है फ़ोन के उस ओर से. उसने जीवन को अपना और छोटी का बेटा स्वीकार लिया था पूरे गाँव के सामने. जीवन उसी झूलते किसान का बेटा है जिसे ले आई थी छोटी अपने साथ गाँव के सरपंच को मनाकर. आवाज़ नाना की भी है लेकिन उसमे चुहल नहीं रही अब, आवाज़ शकुन की है, जो शराब के ठेकों पर ताले डलवा रही है, आवाज़ छोटी की है जो सिन्धु ताई के बारे में पढ़ते हुई चीख पड़ी है, एक आवाज़ उस चीख की भी है जब वन विभाग के अफसर ने छोटी को जंगल में दबोचने की कोशिश की थी. आवाज़ सुनील की है जब सल्फास ने उसके शरीर का लहू जला डाला था, और आखिरी आवाज़ उसी झूलते किसान की है जिसके सामने छोटी ने मौत को अपने भीतर सोखकर जीवन को पैदा किया था.
पहाड़ी की सतह तक डूबते सूरज की किरणों ने पहाड़ी को सुनहला कर दिया है, बादलों के आगमन की सूचना लिए झोंको पर तैरती छोटी पूरे बनगांव में जींस पहनकर उड़ रही है, शिबू कपास के उजले फूलों में लहलहा रहा है और जाने कितनी आवाजें इन्हीं हवाओं में तैर रही हैं.
विजयेन्द्र और उसके साथियों ने मिलकर गाँव में किसानों की समस्याओं पर एक सेमिनार आयोजित कराया है- ‘मंथन’, वैज्ञानिक आए हैं, शोधार्थी आए हैं और बड़े लोग आए हैं. गाँववाले देख रहे हैं कि कैसे वैज्ञानिकों ने एक पौधे में जुगनू का जीन मिलाया है और जब भी पौधे को भूख या प्यास लगती है वह चमकने लगता है. एक किसान मुस्कुराता है- हमें अपने पौधों की भूख प्यास बिना नीली रौशनी के भी पता चल जाती है. मंथन में मंत्री और बैंक मेनेजर भी आतें हैं, विरोध होता है, शोर होता है, विजयेन्द्र की दुर्घटना होती है और दूर दिल्ली में किसान आत्महत्या पर बोल रहे मंत्रीजी को किसान हिकारत भरी नज़रों से देखते हैं.
इन सब के बावजूद छोटी देखती है कि खेत का वह टुकड़ा जहां लालू और उसके पिता शिबू को गाड़ा गया था, लहलहा रहा है. शायद उसके पिता की हड्डियों का चूरा खाद बन गया है या उसका वडील ही उग आया है उन पौधों में और मुस्कुरा रहा है कि उसके होते वह खेत सूखने नहीं देगा. विजयेन्द्र आत्महत्या की तमाम वजहों पर सोच रहा है और उसके वडील की लाश बार बार आँखों के सामने घूम रही है, मौत का तांडव हो रहा है, इतने में छोटी ने एक चुम्बन धर दिया है बिज्जू के अधरों पर जीवन से सराबोर, इस गाँव में जीवन दूर से तड़पाता है और मौत बांहों में भर लेती है, आज जीवन पास है, जीवन में वादें हैं, यादें हैं, एक याद छोटी की भी है, बांस के नीचे मुस्कुराते बतियाते चूमा था अशोक ने भी उसे, जीवन मिटता नहीं कभी उसके भीतर, गहरा होता है उसके संघर्ष के साथ साथ. आज अशोक की आवाज़ आई है फ़ोन के उस ओर से. उसने जीवन को अपना और छोटी का बेटा स्वीकार लिया था पूरे गाँव के सामने. जीवन उसी झूलते किसान का बेटा है जिसे ले आई थी छोटी अपने साथ गाँव के सरपंच को मनाकर. आवाज़ नाना की भी है लेकिन उसमे चुहल नहीं रही अब, आवाज़ शकुन की है, जो शराब के ठेकों पर ताले डलवा रही है, आवाज़ छोटी की है जो सिन्धु ताई के बारे में पढ़ते हुई चीख पड़ी है, एक आवाज़ उस चीख की भी है जब वन विभाग के अफसर ने छोटी को जंगल में दबोचने की कोशिश की थी. आवाज़ सुनील की है जब सल्फास ने उसके शरीर का लहू जला डाला था, और आखिरी आवाज़ उसी झूलते किसान की है जिसके सामने छोटी ने मौत को अपने भीतर सोखकर जीवन को पैदा किया था.
पहाड़ी की सतह तक डूबते सूरज की किरणों ने पहाड़ी को सुनहला कर दिया है, बादलों के आगमन की सूचना लिए झोंको पर तैरती छोटी पूरे बनगांव में जींस पहनकर उड़ रही है, शिबू कपास के उजले फूलों में लहलहा रहा है और जाने कितनी आवाजें इन्हीं हवाओं में तैर रही हैं.

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