प्रेम कहानी और वह भी बेतुकी सी.
इस किशोर उम्र में तो कितनी ही भोली मासूम प्रेम कहानियाँ लिखी जा सकती हैं, पर लेखक की जो मर्ज़ी चाहे वह अपनी अनुभूतियाँ लिखे, संस्मरण या फिर कोई बेतुकी सी प्रेम कहानी.
सुबह के छः बजे थे. हॉस्टल के लगभग बच्चे सो रहे थे, 6:30 बजे उन्हें क्लासेज के लिए जाना होगा और उनके लिए नाश्ता बनाने के लिए सूरज मेस का शटर खोल कर जैसे ही पीछे मुड़ा, पांच कदम के फासले पर खड़ी वह लड़की मुस्कुरा रही थी. सूरज को मुड़ते देख वह जैसे शरमाकर दूसरी ओर चली गई. सूरज की 'फ्लर्टिंग' की कोशिशों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था और ऐसा रंग दिखाया था की एक ज़िन्दगी रंगों से सराबोर हो गई थी.
चार महीने पहले वह जब इस मेस में 'रसोइया' बनकर आया तो यह लड़की सामने के अधूरे निर्मित भवन में अपने मजदूर माता-पिता के साथ रहने आई थी. मैले कुचेले कपड़ों में दिनभर टीवी के सामने चिपकी रहने वाली लड़की सुबह सुबह बर्तन धोकर सबके लिए खाना बनाती और फिर वही टीवी से चिपकी रहती. स्कूल में रोबदार प्रिंसिपल के बच्चे का सर फोड़ कर घर से भागा सूरज जब सुबह का नाश्ता बनाकर सभी छात्रों को खिला देता तब उसके पास आती जाती लड़कियों को घूरने के अलावा कोई काम नहीं बचता था. हॉस्टल और उस अर्ध निर्मित भवन में लगभग 10 मीटर का तिरछा फासला था और सूरज उस बिल्डिंग की बगल के हॉस्टल के स्टोर रूम से सामान लाने दिनभर में कई बार जाता था. कानों में 'मस्त साउंड वाले' इअरफोन्स लगाए सूरज जब भी उधर से कुछ लाने जाता तो जानबूझकर उसे घूरता हुआ जाता और चेहरे पर एक बनावटी मुस्कान बिखेरने की कोशिश करता ताकि वह खुद को शाहरुख़ खान समझ सके और अगर लड़की ने भी उसे देख लिया तो वह भी समझ ले. आमतौर पर बंद रहने वाला उस 'टीवी कक्ष' का दरवाज़ा अब आधा खुला रहने लगा और उस ओर से आने लगी एक बाँकी नज़र जो शायद टीवी पर चल रही कहानियों और इस 'रसोइये' की मुस्कान में कोई समानता ढूँढने की कोशिश करती रहती .
यह कहानी टीवी वाली कहानी से ज़रा सी तेज़ चली और पात्रों के व्यवहार में काफी आश्चर्यजनक बदलाव आये. हाँ ये बदलाव उस टीवी वाली कहानी से मेल नहीं खा रहे थे. लेखक को टीवी की कहानी का तो पता नहीं पर इस कहानी में लड़की के वही दो जोड़ी मैले कुचेले कपड़े अब रोज़ धुले हुए दिखते थे. लड़की अब दिनभर टीवी नहीं देखती थी, उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया था और अपने घर के सभी छोटे बच्चों को भी तैयार कर के ले जाती थी . जब वह स्कूल से लौटती तो घर का काम करके पापा की साइकिल मांगकर चलाना सीखने की कोशिश करती थी. साइकिल चलाते हुए वह हॉस्टल के गेट के पास आते आते वह किसी दैवीय शक्ति से साइकिल की चेन उतार देने की प्रार्थना करती भले ही उसे गिर कर चोटिल क्यों न हो जाना पड़े. फिर एक बेतुकी प्रेम कहानी के हीरो की तरह सूरज आता और और साइकिल की चेन चढ़ाता. इस दौरान दोनों एक दूसरे की आँखों में नज़रें डालकर और हटाकर आँखों आँखों में ही बहुत कुछ बात कर लेने का अभिनय करते थे. बात बात पर अपनी माँ से लड़ने वाली, छोटों को पीट देनेवाली वह लड़की अब खुश रहने लगी थी, दयालु हो गई थी. रात के खाने के बाद मोबाइल स्क्रीन पर चल रही फिल्म में शाहरुख़ खान की जगह खुद को देखते देखते सूरज अब अभिनेत्री की जगह उस लड़की को भी देखने लगा था. वह हॉस्टल के बच्चों से ज़िक्र करता था कि उसने 'फ्लर्ट' करके उसे 'पटा' लिया है, पर उसे नहीं पता था कि उसकी कहानी और भावनाओं के लिए ये शब्द सही नहीं बैठते थे.
लड़की उधर से लौट आई थी और हौले हौले क़दमों से मेस के सामने से होकर गुज़र रही थी. सूरज जैसे इस पल का इंतज़ार कर रहा था. उसने हलके से अखबार के नीचे रखा हुआ गुलाब निकाला जो उसने मालकिन की डांट की परवाह किये बिना अभी अभी तोड़ा था. सूरज को अपनी ओर आते देख लड़की की चाल धीमी होकर रुक गई. सुबह का कोहरा अब छंटने वाला था. सूरज ने कांपते हाथों से वह फूल लड़की के बालों में लगा दिया. लड़की ने इस पल के लिए आँखें बंद कर ली थी. ऐसा करने के लिए अब उसे टीवी वाली अभिनेत्री की नक़ल करने की ज़रूरत नहीं रह गई थी. सूरज ठन्डे होते अपने हाथों को जेब में रखकर अपनी धकियाती धडकनों को शांत करने की कोशिश करते हुए वापस मेस की तरफ मुड़ गया. लड़की ने जल्दी से बालों से फूल निकाला और अपने हाथ में रखकर उसे ओढ़नी के एक किनारे में लपेट कर चली गई.
ज़िन्दगी अक्सर बेतुकी बातों में ही अपने छंद संजो जाती है, जिन्हें पाने के लिए हम कितने ही प्रयत्न करते रहते हैं.कहानी शुरू होती है. एक सत्रह बरस का लड़का और चौदह बरस की लड़की.
इस किशोर उम्र में तो कितनी ही भोली मासूम प्रेम कहानियाँ लिखी जा सकती हैं, पर लेखक की जो मर्ज़ी चाहे वह अपनी अनुभूतियाँ लिखे, संस्मरण या फिर कोई बेतुकी सी प्रेम कहानी.
सुबह के छः बजे थे. हॉस्टल के लगभग बच्चे सो रहे थे, 6:30 बजे उन्हें क्लासेज के लिए जाना होगा और उनके लिए नाश्ता बनाने के लिए सूरज मेस का शटर खोल कर जैसे ही पीछे मुड़ा, पांच कदम के फासले पर खड़ी वह लड़की मुस्कुरा रही थी. सूरज को मुड़ते देख वह जैसे शरमाकर दूसरी ओर चली गई. सूरज की 'फ्लर्टिंग' की कोशिशों ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था और ऐसा रंग दिखाया था की एक ज़िन्दगी रंगों से सराबोर हो गई थी.
चार महीने पहले वह जब इस मेस में 'रसोइया' बनकर आया तो यह लड़की सामने के अधूरे निर्मित भवन में अपने मजदूर माता-पिता के साथ रहने आई थी. मैले कुचेले कपड़ों में दिनभर टीवी के सामने चिपकी रहने वाली लड़की सुबह सुबह बर्तन धोकर सबके लिए खाना बनाती और फिर वही टीवी से चिपकी रहती. स्कूल में रोबदार प्रिंसिपल के बच्चे का सर फोड़ कर घर से भागा सूरज जब सुबह का नाश्ता बनाकर सभी छात्रों को खिला देता तब उसके पास आती जाती लड़कियों को घूरने के अलावा कोई काम नहीं बचता था. हॉस्टल और उस अर्ध निर्मित भवन में लगभग 10 मीटर का तिरछा फासला था और सूरज उस बिल्डिंग की बगल के हॉस्टल के स्टोर रूम से सामान लाने दिनभर में कई बार जाता था. कानों में 'मस्त साउंड वाले' इअरफोन्स लगाए सूरज जब भी उधर से कुछ लाने जाता तो जानबूझकर उसे घूरता हुआ जाता और चेहरे पर एक बनावटी मुस्कान बिखेरने की कोशिश करता ताकि वह खुद को शाहरुख़ खान समझ सके और अगर लड़की ने भी उसे देख लिया तो वह भी समझ ले. आमतौर पर बंद रहने वाला उस 'टीवी कक्ष' का दरवाज़ा अब आधा खुला रहने लगा और उस ओर से आने लगी एक बाँकी नज़र जो शायद टीवी पर चल रही कहानियों और इस 'रसोइये' की मुस्कान में कोई समानता ढूँढने की कोशिश करती रहती .
यह कहानी टीवी वाली कहानी से ज़रा सी तेज़ चली और पात्रों के व्यवहार में काफी आश्चर्यजनक बदलाव आये. हाँ ये बदलाव उस टीवी वाली कहानी से मेल नहीं खा रहे थे. लेखक को टीवी की कहानी का तो पता नहीं पर इस कहानी में लड़की के वही दो जोड़ी मैले कुचेले कपड़े अब रोज़ धुले हुए दिखते थे. लड़की अब दिनभर टीवी नहीं देखती थी, उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया था और अपने घर के सभी छोटे बच्चों को भी तैयार कर के ले जाती थी . जब वह स्कूल से लौटती तो घर का काम करके पापा की साइकिल मांगकर चलाना सीखने की कोशिश करती थी. साइकिल चलाते हुए वह हॉस्टल के गेट के पास आते आते वह किसी दैवीय शक्ति से साइकिल की चेन उतार देने की प्रार्थना करती भले ही उसे गिर कर चोटिल क्यों न हो जाना पड़े. फिर एक बेतुकी प्रेम कहानी के हीरो की तरह सूरज आता और और साइकिल की चेन चढ़ाता. इस दौरान दोनों एक दूसरे की आँखों में नज़रें डालकर और हटाकर आँखों आँखों में ही बहुत कुछ बात कर लेने का अभिनय करते थे. बात बात पर अपनी माँ से लड़ने वाली, छोटों को पीट देनेवाली वह लड़की अब खुश रहने लगी थी, दयालु हो गई थी. रात के खाने के बाद मोबाइल स्क्रीन पर चल रही फिल्म में शाहरुख़ खान की जगह खुद को देखते देखते सूरज अब अभिनेत्री की जगह उस लड़की को भी देखने लगा था. वह हॉस्टल के बच्चों से ज़िक्र करता था कि उसने 'फ्लर्ट' करके उसे 'पटा' लिया है, पर उसे नहीं पता था कि उसकी कहानी और भावनाओं के लिए ये शब्द सही नहीं बैठते थे.
लड़की उधर से लौट आई थी और हौले हौले क़दमों से मेस के सामने से होकर गुज़र रही थी. सूरज जैसे इस पल का इंतज़ार कर रहा था. उसने हलके से अखबार के नीचे रखा हुआ गुलाब निकाला जो उसने मालकिन की डांट की परवाह किये बिना अभी अभी तोड़ा था. सूरज को अपनी ओर आते देख लड़की की चाल धीमी होकर रुक गई. सुबह का कोहरा अब छंटने वाला था. सूरज ने कांपते हाथों से वह फूल लड़की के बालों में लगा दिया. लड़की ने इस पल के लिए आँखें बंद कर ली थी. ऐसा करने के लिए अब उसे टीवी वाली अभिनेत्री की नक़ल करने की ज़रूरत नहीं रह गई थी. सूरज ठन्डे होते अपने हाथों को जेब में रखकर अपनी धकियाती धडकनों को शांत करने की कोशिश करते हुए वापस मेस की तरफ मुड़ गया. लड़की ने जल्दी से बालों से फूल निकाला और अपने हाथ में रखकर उसे ओढ़नी के एक किनारे में लपेट कर चली गई.
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बेतुकी मे तुक कि भरामार!मेरे ख्याल से इस दुनिया मे कुछ भी ऐसा नही होता जो बेतुका हो। हाँ किसी खास व्यक्ति या वर्ग के लिए हो सकता है पर सब के लिए नहीं।
ReplyDeleteवैसे बेतुकि बातो को भी शब्दो से सजो देना कला है।।
बिलकुल हर्ष! दुनिया में कुछ भी बेतुका नहीं होता, हर चीज़ के होने के पीछे कोई ख़ास वजह होती है. इसे मैंने बेतुकी प्रेम कहानी का नाम इसलिए दिया क्योंकि यह कहानियों और विशेषकर प्रेम कहानियों की हमारी अपेक्षित धारणा पर खरी न उतरे. परन्तु इससे इसका बेतुका होना सिद्ध नहीं होता.
Deleteप्रशंसा के लिए धन्यवाद्.