कभी अपने भय से कस्बे के निवासियों को त्रस्त कर देने वाली बूढी गंडक की शीतल धारा आज मद्धम बह रही थी. घाट पर बने पूजा के पंडाल में बज रहा संगीत इस ओर आने को भोर के अँधेरे की सौम्यता से संघर्ष कर रहा था.
वाणी यही इसी किनारे लगी एक नाव पर अपने पैर पानी में डुबो कर बैठी किसी का इंतजार कर रही थी. नदी की सतह पर आहिस्ता तैरती हवा अँधेरे की इस हलकी चादर से छनकर वाणी को सुकून पहुंचा रही थी. वाणी जैसे कहीं खो गई थी.
वाणी ने जैसे ही धीरज के चेहरे को देखा उसे लगा जैसे धीरज की नज़रें उससे इसी पल में बहुत कुछ कह देना चाहती थीं, किसी स्वप्नलोक की कहानियां ,किसी अंतहीन सफ़र पर जाने की बेसिर-पैर की योजनाएं या और भी बहुत कुछ. वह भी ख़ामोशी से सब सुन लेना चाहती थी.
सहसा धीरज ने ख़ामोशी तोड़ दी.
"वाणी! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ."
अनगिनत शब्दों और भावनाओं से भरी वह ख़ामोशी और उसको चीरते धीरज के ये शब्द.
वाणी सामने की ओर देख रही थी. उस ओर जिस ओर से वह नदी उनके छोटे से कस्बे में आती थी. वाणी नदी और आकाश का मिलन बिंदु ढूंढ रही थी. धीरज भी अनजाने में उसकी इस कोशिश का भागीदार बन रहा था. भोर का अँधेरा छंटने वाला था. वाणी अपनी नज़र अपने पैरों से लिपटे जलकणों पर ले आई. उसने धीरज के हाथ पर अपना हाथ रखकर खामोशी को टूट जाने दिया.
"मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती."
धीरज वाणी के चेहरे पर पहले कभी न आए इन भावों को देखकर आश्चर्यचकित रह गया था. उसे महसूस हुआ कि वाणी के इन शब्दों में सिर्फ प्रेम का आग्रह नहीं है,बल्कि इनमें उसके सपनों का संचार है. पर शायद इनमें उसे पा लेने की चाहत से ज्यादा है उसे खो देने का डर! वाणी चली गई थी. अँधेरे ने जादुई ढंग से लगभग अपने सभी कणों को समेट लिया था. धीरज भी अब नदी और आकाश का वही मिलन बिंदु ढूंढ रहा था. उसने देखा कि वाणी की मुस्कान की लालिमा नदी के ठीक ऊपर आकाश में छा गई थी.
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कुछ वर्ष बीत गए थे. वाणी इस बार भी छठ का दीप प्रज्वलित करने के बाद किनारे लगी नाव में बैठ गई थी. यह नाव दूसरी थी. जिस नाव पर वह पहले बैठा करती थी वह आज उस किनारे जा लगी थी. बूढी गंडक के ठन्डे पानी ने जैसे ही उसके तलवों को छुआ, उसे उसकी आत्मा तक कुछ चुभता महसूस हुआ. उसे पता था अब धीरज नहीं आएगा. उसके शहर जाने के बाद उसकी कुछ यादें ही तो बची हैं जिन्हें वह इसी मिलन बिंदु पर बिखरा देने को समेट ले आती है. कुछ वर्षों पहले तक सुकून भरी लगने वाली यह मद्धम हवा पता नहीं क्यों इतनी धारदार हो गई है कि वह अपने हर झोंके के साथ उसे कभी इस पार से उस पार और उस पार से इस पार चीरकर निकल जाती है और उसे खबर तक नहीं होती.
लेकिन हर बार यहाँ अँधेरे के खोने और सूरज के उगने पर एक जादू होता है. उसकी वे आँखें जिन्होंने धीरज के जाने के बाद कितनी ही बार यहीं बैठकर अपने आंसुओं से उगते सूरज को अर्घ्य दिया था, अब जादुई हो गई हैं. अब हर साल इस भोर के मिटते अँधेरे के साथ साथ वे भी अपनी एक याद मिटा डालती हैं. और जब यह जादू हो जाता है तब वाणी अपनी मुट्ठी खोलती है, उसमें एक कागज़ होता है और कागज़ पर एक कविता लिखी होती है.
रोज़ आते हो तुम
शायद यहीं
नदी किनारे
बैठ रेत पर मुझे बुलाते हो
विकल तुमसे मिलने को
भागी मैं आती हूँ
रेतों पे तुम्हारे निशाँ और किनारे बंधी नैया पर हलचल
पर तुम्हें नहीं पाती हूँ
मुस्कुराता सूरज कहता है
लौट जा, सांझ होने वाली है..
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