रात का तीसरा पहर जब बीतता होता है
और मद्धम पड़ने लगती हैं
गली में भौंकते कुत्तों की आवाजें
और भी जाने कितनी आवाजें
कबसे टकराती मस्तिष्क की दीवारों से
जब थक जाती हैं
तब मैं एक कुर्सी लेकर
बालकनी में
आ बैठता हूँ
आधी छत और आधे आसमान वाली
बालकनी के ऊपर वहाँ आकाश में
टिमटिमाते हैं तारे
बिलकुल अगल बगल
बिना प्रतिस्पर्धा के
वे महज़ तारे नहीं है
वे हैं रौशनी के बिंदु
हर रौशनी के बिंदु में एक पूरी दुनिया है
और ऐसी ढेर सारी दुनियाओं की रौशनी
अंतरिक्ष की सीमाओं को नापते हुए
मेरी नज़रों से होकर
मन में घूमती कुछ तलाशती है
यह रौशनी जलाती है मेरे भीतर कुछ
जो हो सकती हैं बेसुध ख़्वाबों की किरचें
या हो सकता है
दम घुटने से मरी मानवता का पड़ा हुआ शव
तब ऐसे ही बहुत कुछ हो जाता है
जब मेरे कानों में बजते इयरफ़ोन
अपने संगीत में छेड़ देते हैं कोई अजीब सा सुर
और लगता है कि मैं
उन रौशनी वाली दुनियाओं को ताकते ताकते
जुड़ गया हूँ उनसे
और मेरे मन की गहराई नापता संगीत बन गया है
स्वर उनके संचार का
तब मैं देखता हूँ
ब्रह्माण्ड में घूमती इस नन्हीं सी पृथ्वी को
धरती के छोटे से अंश में
जाने ही कितने छोटे छोटे टुकड़े हैं
इन सारे टुकड़ों के सबसे छोटे किसी खंड में
सांस भर ले पाने की जगह में खड़े
सभ्यता के मकान की दूसरी मंजिल पर
बालकनी में बैठा मैं
किसी अनजान यात्रा में खुद को झोंक चुका हूँ
मैं खुद को देख नहीं पाता फिर
अचानक से चमकता है एक हल्का नीला बिंदु
एक बिंदु जो रौशनी वाली कितनी ही दुनियाओं के परे
मेरे अस्तित्व को ढो कर ले जाता है
कभी तेज़ और कभी मद्धम होते सुरों की लय में
टिमटिमाती रौशनी की दुनियाएं
मुझे खुद से बाहर बुला लेती हैं
किसी अंतहीन सफ़र पर..
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