लहरों का बनना, बिगड़ना, आना, और वापस लौट जाना धीरज को उलझाये हुए था. उसने अपनी नज़र घुमाई तो देखा कि वाणी सामने की ओर देख रही है. मुग्ध, स्थिर.
“क्या देख रही हो?” उसने पूछा.
“सामने देखो, ये जो धूप बिछी हुई है समुद्र की सतह पर, कैसे चादर सी लग रही है न, और जैसे लहरें आ जा रही हैं तो ऐसा लग रहा है जैसे हवा का एक झोंका इस लाल चादर से होके गुज़रा हो.”
वाणी ने अपनी नज़र बिना इधर उधर किए कहा.
धीरज मुस्कुराया. उसने सामने की ओर देखा और फिर वाणी के चेहरे को देखने लगा. शांत, सौम्य. उसकी पलकों से टकराकर बुझती धूप की नरमाहट उसके चेहरे पर फैल रही थी. उसका ध्यान अपने हाथ की ओर गया. उसने देखा कि हथेली के नीचे की रेत धंस गई है, बिलकुल थोड़ी सी. उसने अपनी हथेली उठाई तो देखा कि उसपे रेत के नन्हें कण चिपके हुए हैं. उसने हथेली को वापस वही रख दिया.
“पता है वाणी, जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ तो सचमुच का होता हूँ. अपने होने पे पूरा यक़ीन होता है मुझे.”
“बेसिर-पैर की बातें न करो, हम साथ हों न हों, होते तो हैं ही. रियलिटी में इमेजिनेशन मत घुसाओ.”
“तुम समझीं नहीं वाणी, सोचो हमारा अस्तित्व कितना सीमित होता है. एक पल में, एक छोटी सी जगह में सिमटा हुआ, इस विशाल ब्रह्माण्ड में इतना सूक्ष्म, जैसे इसके होने न होने से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता. हम ऐसी सीमाओं, दीवारों से घिरे हुए हैं जिनके पार हम कभी नहीं जा सकते.
लेकिन जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ तो यह सब भूल जाता हूँ, सीमाओं की परवाह नहीं होती मुझे.”
“चलो अब ज्यादा फिलॉसफ़र मत बनो. जो अपने आस पास है उसको जीना सीखो. हम भले एक मोमेंट में ही हों तो क्या, उसमे इतना प्यार भर दें कि सारा वक़्त, सारी दुनिया रश्क़ करे हमसे. ”
“देखो अब कौन फिलॉसफ़र हुआ जा रहा है?”
“मारूंगी तुमको, शुरू तुमने किया था.”
“अच्छा सुनो, वैसे हम सब बेसिकली फिलॉसफ़र ही तो हैं, बचपन से जिज्ञासा के पीछे भागते भागते वैज्ञानिक हो जाते हैं, और अब चीज़ों में अर्थ तलाशते तलाशते दार्शनिक. तुमसे मिलके न जाने अपने कितने इंस्टिंक्टों की तलाश की है मैंने, अभी पता नहीं और क्या क्या हो जाऊंगा.”
“यार तुम न, थोड़े कम रोमांटिक रहा करो. तुम रोमांटिक होते हो और फिलॉसफ़ी चालू हो जाती है, मैं तो बोर हो जाती हूँ.”
इतना कह कर वाणी ने अपना हाथ धीरज के हाथ पर रख दिया, रेत ने उसके हाथ के लिए भी जगह बना ली.
"तुम सचमुच बोर हो जाती हो ?"
धीरज ने वाणी का हाथ हौले से दबाते हुए पूछा
वापस लौटती लहर को देखते हुए वाणी ने धीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया,
“पता नहीं..”
काफ़ी देर से यह गपशप सुनने के लिए रुका सूरज, आखिरकार क्षितिज के नीचे चला गया.
“क्या देख रही हो?” उसने पूछा.
“सामने देखो, ये जो धूप बिछी हुई है समुद्र की सतह पर, कैसे चादर सी लग रही है न, और जैसे लहरें आ जा रही हैं तो ऐसा लग रहा है जैसे हवा का एक झोंका इस लाल चादर से होके गुज़रा हो.”
वाणी ने अपनी नज़र बिना इधर उधर किए कहा.
धीरज मुस्कुराया. उसने सामने की ओर देखा और फिर वाणी के चेहरे को देखने लगा. शांत, सौम्य. उसकी पलकों से टकराकर बुझती धूप की नरमाहट उसके चेहरे पर फैल रही थी. उसका ध्यान अपने हाथ की ओर गया. उसने देखा कि हथेली के नीचे की रेत धंस गई है, बिलकुल थोड़ी सी. उसने अपनी हथेली उठाई तो देखा कि उसपे रेत के नन्हें कण चिपके हुए हैं. उसने हथेली को वापस वही रख दिया.
“पता है वाणी, जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ तो सचमुच का होता हूँ. अपने होने पे पूरा यक़ीन होता है मुझे.”
“बेसिर-पैर की बातें न करो, हम साथ हों न हों, होते तो हैं ही. रियलिटी में इमेजिनेशन मत घुसाओ.”
“तुम समझीं नहीं वाणी, सोचो हमारा अस्तित्व कितना सीमित होता है. एक पल में, एक छोटी सी जगह में सिमटा हुआ, इस विशाल ब्रह्माण्ड में इतना सूक्ष्म, जैसे इसके होने न होने से कुछ फ़र्क नहीं पड़ता. हम ऐसी सीमाओं, दीवारों से घिरे हुए हैं जिनके पार हम कभी नहीं जा सकते.
लेकिन जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ तो यह सब भूल जाता हूँ, सीमाओं की परवाह नहीं होती मुझे.”
“चलो अब ज्यादा फिलॉसफ़र मत बनो. जो अपने आस पास है उसको जीना सीखो. हम भले एक मोमेंट में ही हों तो क्या, उसमे इतना प्यार भर दें कि सारा वक़्त, सारी दुनिया रश्क़ करे हमसे. ”
“देखो अब कौन फिलॉसफ़र हुआ जा रहा है?”
“मारूंगी तुमको, शुरू तुमने किया था.”
“अच्छा सुनो, वैसे हम सब बेसिकली फिलॉसफ़र ही तो हैं, बचपन से जिज्ञासा के पीछे भागते भागते वैज्ञानिक हो जाते हैं, और अब चीज़ों में अर्थ तलाशते तलाशते दार्शनिक. तुमसे मिलके न जाने अपने कितने इंस्टिंक्टों की तलाश की है मैंने, अभी पता नहीं और क्या क्या हो जाऊंगा.”
“यार तुम न, थोड़े कम रोमांटिक रहा करो. तुम रोमांटिक होते हो और फिलॉसफ़ी चालू हो जाती है, मैं तो बोर हो जाती हूँ.”
इतना कह कर वाणी ने अपना हाथ धीरज के हाथ पर रख दिया, रेत ने उसके हाथ के लिए भी जगह बना ली.
"तुम सचमुच बोर हो जाती हो ?"
धीरज ने वाणी का हाथ हौले से दबाते हुए पूछा
वापस लौटती लहर को देखते हुए वाणी ने धीरज के कंधे पर अपना सिर टिका दिया,
“पता नहीं..”
काफ़ी देर से यह गपशप सुनने के लिए रुका सूरज, आखिरकार क्षितिज के नीचे चला गया.
Post a Comment