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एक चिट्ठी गाँधी के नाम


A letter to Gandhi

गाँधी,
तुमसे मेरी मुलाकात मनोहर पोथी के पहले पन्ने पर हुई थी. पापा की कहानियों से जब तुमसे थोड़ी जान पहचान हुई तो पता चला कि तुम तो राष्ट्रपिता हो, तब कलाम राष्ट्रपति थे, मैं इन सवालों के अक्सर जवाब ढूँढने की कोशिश करता कि राष्ट्रमाता और राष्ट्रपत्नी कौन थे . मैं उस पीढ़ी में बड़ा हुआ हूँ जहां बचपन में पैंट के ऊपर धोती पहन कर 15 अगस्त को स्कूल के नाटक में आज़ादी के संघर्ष में तुम्हें दिखाया जाता था लेकिन 9वीं और 10वीं तक आते आते तुम्हारी लड़ाई को कमतर बताने की कोशिश की जाती. तब अचानक से किताबों की दुनिया वास्तविक दुनिया से अलग हो जाती. हमें व्यवहारिक होने की नसीहतें दी जातीं. तुम किताबों में अब भी नायक थे पर हमारे इर्द गिर्द विलेन जिसको हमारी पीढ़ी द्वारा नकार दिया जाना था. मुझे तब यह बात समझ में नहीं आती कि तुम्हें गलत ठहराया जाना क्यों ज़रूरी था. मुझे इतिहास में भी रूचि नहीं थी इसलिए मैंने किताबों से भी इसका उत्तर जानने की उत्सुकता नहीं दिखाई. लेकिन मुझे यह बात समझ में नहीं आई थी कि क्या जादू था तुममे जो तुमने ऐसे ही लड़ लिया था, बिना लड़े?

फिर मेरी मुलाकात तुमसे पटना से हावड़ा जाने वाली ट्रेन के जनरल डिब्बे में हुई. ट्रेन में ठसाठस भीड़ थी और मुझे सीट के नीचे एक कोने में सिकुड़ पाने की जगह भी मुश्किल से मिल पाई थी. मेरे हाथों में तुम्हारे सत्य के प्रयोग थे जिन्हें मैंने खुद को सो पाने की किसी भी अवस्था से बचाए रखने के लिए खरीदा था. मैं तुम्हें पढता गया. मुझे महसूस हुआ कि अगर मुझे ट्रेन से उस वक्त उतार दिया जाता जैसे तुम्हें उतार दिया गया, तो बेशक यह घटना मुझे कमजोर और मजबूर महसूस नहीं कराती. यह मुझे ताक़त देती. और मैंने पहली बार अपने भीतर भरी उस जादुई शक्ति की अनुभूति की, जिसका प्रयोग करना दुनिया में सबसे सरल था, इतना सरल जितना उसे प्रयोग करने के बारे में सोचना भी नहीं था. मैं तुम्हारे तर्कों, कुतर्कों, खुद पे किये जानेवाले प्रयोगों, अवधारणाओं और प्रतिज्ञाओं से गुज़रता रहा और इसके साथ ही गुज़रता रहा मेरे भीतर कहीं मौजूद तुम से. 
वो सफ़र ख़त्म हो गया, आधी बची किताब मैंने वापसी के रास्ते में पढ़ी. पर तुम मेरे भीतर कहीं गहरे उग आए. जैसे निकल आई हो कोई नदी किसी सूखे मैदान में. मुझे दुनिया प्यारी लगने लगी और दिखने लगा हर आदमी में छिपा हुआ मैं. तुमने मुझसे किसी से भी नफरत करने की सारी वजहें बेरहमी से छीन लीं और जो बच गया , वो बस प्यार है. मैंने देखा कि दुनिया और इसके लोग, अपने तमाम अंतर्विरोधों, अंधविश्वासों , तकलीफों , खतरों और जिंदा रहने की ढेर सारी जद्दोज़हद के बीच जो ढूंढ रहे हैं, वो प्यार है जिसका समुद्र मेरे भीतर भी है.

तुमने जितनी सरलता से अपने दुश्मनों से भी प्रेम किया, मुझे यकीन है कि वे उनके भीतर प्रविष्ट गाँधी से लड़ते लड़ते हार गए होंगे. मैंने देखा कि गाँधी ने जो लड़ाई जीती थी, यह जादू था और हाँ, यह जादू सच में था और यह जादू अब भी मेरे और मेरी दुनिया के सारे लोगों के भीतर भरा है. लड़ने का अचूक तरीका जिसमे हार नाम की कोई चीज़ ही नहीं थी. और यह दुनिया की कितनी भी बड़ी, किसी भी लड़ाई को जीतने का सबसे आसान तरीका था जिसमें किसी भी रणनीति की ज़रुरत नहीं थी. इसमें ज़रूरत थी तो बस प्यार करने की. 
गाँधी तुमने मुझे प्रेम करना सिखाया है और यह दिखाया है कि बस प्रेम करते जाना इतना जादू भरा हो सकता है कि दुनिया को अब भी इस बात का यकीन नहीं हुआ है. पर मुझे है गाँधी! मुझे यकीन है कि तुम्हारे लहू का एक भी क़तरा जिसने भी बहाया होगा, तुम्हारा लहू उसके दिल में उतर आया होगा और फिर वह खुद को गाँधी होने से बचा नहीं पाया होगा. ये जो नफरत फैलाने वाले तमाम लोग हैं न, बहुत डरते हैं तुमसे, तुम्हारे नाम से, तुम्हारे होने की कल्पना मात्र से, क्योंकि ये जानते हैं कि जब भी प्रेम और नफरत आमने सामने होंगे तो नफरत के सामने हार कर प्रेम में मिल जाने के अलावा कोई विकल्प न हुआ है न होगा. हो ही नहीं सकता. 

तुम मरे नहीं हो गाँधी. तुम्हें कोई मार ही नहीं सकता. प्रेम को नहीं मारा जा सकता. 

तुम प्रेम बन कर मेरी रगों में बह रहे हो गांधी और बहते रहोगे, मैं जीता रहूँगा और प्रेम करता रहूँगा..

Monday, 30 January 2017




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