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उम्मीद





पार्क की उस बेंच के नीचे एक कोने पर दूब उग आई थी. ओस की एक बूँद वही सिकुड़ी सूरज की पहली किरण का इंतजार कर रही थी.
“दिल्ली की रातें अब सर्द होने लगी हैं न!”
सूरज बिल्डिंगों के पीछे से पार्क में झाँकने लगा था.
“तुम कहीं कोई काम क्यों नहीं कर लेते ?”
“कौन सा काम कर लूँ?”
उसने ओस की बूँद को छू लिया. मॉर्निंग वॉक वाले लोग कम होने लगे थे.
“मुझे आजकल तुम्हारी आँखें उदास लगती हैं. इनमें पहले सी ख्वाहिशें नहीं भरी होतीं. तुम इतना क्यों सोचते हो धीरज?
वाणी को अपनी आँखों में अनायास आ गई नमी धीरज की आँखों में दिखने लगी थी.
“कहाँ सोचता हूँ?”
धीरज ने अपनी सामने वाली बेंच पर शांत बैठे बच्चे की आँखों में देखा.
“कभी मेरे अख़बार के दफ्तर आकर मेरी मदद कर दिया करो. इतनी सी बात मानोगे मेरी?”
“मुझे रुपये पैसे, लेनदेन वाली बातें समझ में नहीं आतीं.”
“तुम मत समझना, मैं समझ लूंगी. तुम बस मेरी थोड़ी सी मदद कर देना.”
वाणी ने धीरज को नज़रें अपनी ओर लाते देखा. चेहरे पर उदासी और मुस्कराहट एक साथ लिए. पता नहीं वह उदास होते हुए मुस्कुराया था या मुस्कुराते हुए उदास हुआ था. वाणी ने मुखौटे उतार दिए.
“तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते धीरज? दुनिया वैसी नहीं है जैसी तुम इसे देखना चाहते हो.”
“सारे स्कूल और कॉलेज बंद कर दिए जाने चाहिए.”
“तुम खुद को आराम दो, नए दोस्त बनाओ, कभी प्लान करो कहीं घूमने चलते हैं.”
इसबार वाणी ने बच्चे की आँखों में देखना चाहा. वह अपनी नज़रों को वहाँ नहीं थाम पाई.
“ सारी किताबें जला दी जानी चाहिए.”
“तुमने कभी खुद से पूछा है कि तुम क्या चाहते हो?”
“मैं होना चाहता हूँ वाणी! अपने होने को वैसा ही दर्ज करना चाहता हूँ, मुझे नहीं पता मैं क्या चाहता हूँ..”
“मैं कुछ ले आई हूँ तुम्हारे लिए. खाओगे?”
वाणी ने बैग से टिफ़िन बॉक्स निकाला.
“इनकी प्रॉब्लम क्या है ? कहते कुछ हैं और करते कुछ. जो कहते हैं वो मत करो, जो करते हैं वो मत कहो, आखिर दुनिया की दुश्मनी किससे है?”
“तुम कुछ नया शुरू करने के बारे में क्यों नहीं सोचते?”
इसबार वाणी ने अपनी नज़रें धीरज की आँखों पर टिका दीं.
“तुम्हारी आँखें ईमानदार नहीं हैं. दुनिया फरेबी है.”
वाणी अपनी नज़रें आसमान के रास्ते बेंच के पीछे फुदकती गौरैया पर ले आई.
“वह उतना ज्यादा मैच्योर है जिसकी आंखों में जितनी कम उम्मीद है.”
“तुम्हें बड़ी नहीं होना चाहिए था.”
उसने फिर धीरज की आँखों में देखा.
“तुम मुझ सा होना चाहते थे न? देखो मैं तुम सी हो गई हूँ.”
इसबार नज़रें धीरज ने हटाई थीं.
“मैं अब भी डरता हूँ.”
“तुम्हें नहीं लगता अब अकेलापन त्याग देना चाहिए?”
धीरज ने पराठे का एक टुकड़ा तोड़ा था.
“तुम कब तक अपनी खाली आँखों में मेरे लिए उम्मीद ढो कर लाती रहोगी.”
“मुझे भी डर लगने लगा है, नहीं डरने से.”
दूसरा टुकड़ा वाणी ने तोड़ा था. पराठा अब भी तीन चौथाई बाकी था.
“पानी लाई हो?”
“हाँ. तुम मुझसे डरते हो?”
“नहीं, मैं डरपोक हूँ.”
“कैसे हो?”
“तुम्हें सचमुच जानना है?”
“नहीं.”


किनारे

Wednesday, 18 January 2017




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