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एक Unlearner की डायरी - 2


“Truth is Subjective.”

इतना कहकर वह हौले से मुस्कुराया. एक क्षण को सन्नाटा छा गया.

उसने एक एक शब्द पर जोर देते हुए फिर कहा,
“कुछ भी अंतिम सत्य नहीं होता. ट्रुथ इज सब्जेक्टिव .”

“यह भी?” किसी ने पूछा

“बिलकुल!”

“क्या सच? बहुत कंफ्यूजिंग है. मुझे तुम्हारी बात न मान कर भी माननी पड़ रही है. मैं इसे कैसे परखूँ ? कोई तो तरीका होगा?”

“खुद ढूंढ लो.”

धार की दिशा  सामने किसी दीवार सी चीज़ से टकराकर उलटी हो गयी थी और भीतर बार बार टकरा रही थी. कुछ टूट रहा था. यह अजीब था.

“सुनो! यह सत्य है कि तुम हो और इसे दुबारा परखने की आवश्यकता नहीं है.”
उसकी आंखों में विश्वास था और आवाज़ में स्नेह. वह किताबें समेटकर चला गया.

“मुझे लगता है मेरे इर्द गिर्द या शायद भीतर भी ढेर सारी कई दीवारें हैं, नहीं नहीं बहुत सी दीवारें मुझसे होकर गुज़रती हैं, मैं टकराता रहता हूँ इनसे, बार हर टकराहट में कुछ अजीब होता है, कुछ भयावह सा, कुछ नया, कुछ अलग.”

“तुम जितनी ताक़त के साथ दीवारों से टकराओगे, तुम उनमे दरारें पैदा कर सकोगे, हाँ , तुम इनके पार देख पाओगे.”

“उस पार रौशनी है या अँधेरा.”

“जो भी हो, अँधेरा कभी रौशनी पर भारी नहीं पड़ता और तुम रौशनी हो. दुनिया बस दो रंगों में ही नहीं सिमटी है दोस्त.”

“सुनों मैंने देखा कि मैं भागता जा रहा हूँ और मेरे पैरों तले जमीन गिरती जा रही है किसी खाई में, सब तबाह हो रहा है.”
“और ..?”

“..और मैं देख रहा हूँ कि अचानक मेरे पैरों के नीचे कुछ भी नहीं है. मैं उसी खाई में गिरता जा रहा हूँ, मेरे कपड़े परतों की तरह टूट टूट कर मेरे शरीर से अलग हो गए हैं, मैं नग्न हो गया हूँ, अचानक सब कुछ थम सा गया है. न धरती है न आसमान. मैं गिरता गिरता जैसे हवा में अटक गया हूँ , या उड़ रहा हूँ.”

“हाँ! अब यह टकराने का वक़्त है, उड़ान भरो और टकरा जाओ, तुम्हारी ताक़त असीम है.”

“पर मेरे पास कुछ भी नहीं, वस्त्र भी नहीं..”

“उन्हें सिर्फ वस्त्र दिखाई देते हैं, तुम्हें देख पाना उनकी सामर्थ्य के बाहर है. तुम्हारी ताक़त असीम है.”

“समझ गया. पर तुम कहाँ हो?”

“मैं भी यही हूँ. मुझे ढूँढो, मेरे वस्त्रों को नहीं.”
“हाँ... तुम ...
..तुम पागल हो .” वह आनंद से चिल्लाया.

“सचमुच! और तुम भी.” मुस्कान तैर गई.
...

Wednesday, 30 November 2016




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