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आवाजें..



वे किस्से सुनाती हैं
अंधेरों के बिखरने की
रौशनी के रेशे उधेड़ कर देखती हैं
अनगिनत बंद दरवाज़े
पागलों सी आवाजें

कौन आवाजें?
आवाजें..


जो बर्फ हैं तमाम प्रश्नों की शिलाओं पर
किसी द्रोही नगर की चौक पर भाप हैं
वे आग है राख के ढेरों की बस्ती पर
जनमती आशाओं के लिए सल्फास हैं
आवाजें..

आवाजें गूंजती हैं सन्नाटों के अंधेरों में
सूखती धमनियों में दीमक सी
रेंगती आवाजें
मस्तिष्क तक पहुंचकर मुक्ति का विस्फोट करती हैं
आवाजें रौशनी के साए में टूट जाती हैं
आवाजें रात की खामोशियों पर चोट करती हैं

आवाजें तैरती हैं जल के तल पर अपने होने के निशाँ खोकर
आवाजें होने और न होने में अभेद करती हैं 
शून्य में जड़ होकर घुल जाती है आवाजें 
वे अब भी आदमियत से परहेज़ करती हैं

आवाजें धूप में जलती, ठण्ड में हैं जम जाती
बारिश होते ही किसी बाढ़ में डूब मरती हैं
आवाजें ढूंढ लाती हैं सब बकवास बातों को
बिना मस्तिष्क के हर चीज़ का कुतर्क करती हैं

वे खूब जोर लगाके भीतर से गरजती हैं
अपनी ही कंठों के नामों को तरसती हैं
आवाजें चीखती हैं कहकहाती सब पे हंसती हैं
आवाजें सूखती हैं पहले और फिर जा झुलसती हैं

आवाजें पुकारती हैं अब किसी माचिस की तीली को
बनकर धुआं खुद को जलाने की कोशिश करती हैं
वे बेचैन हैं अब कोई पत्थर उछालने को
आवाजें विश्व शान्ति के खिलाफ साज़िश करती हैं

रात के तीसरे पहर में
भटकती हैं आवाजें
मसान में किसी के जगने का
आह्वान करती हैं
आवाजें रोती हैं, अट्टहास करती सी बिलखती हैं
आवाजें तेरे मेरे होने का अपमान करती हैं

Wednesday, 21 September 2016




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