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घन बरसे


घन बरसे हैं जो इस सावनभीग गया मेरा आँगन
सूखा सपना इक आर्द्र हुआ है
बूंदों ने जो मन को छुआ है

राह तकते नैनों में भी
उमड़ घुमड़ घिर आए हैं
बीते सावन के गीत पुराने
यादों ने फिर गाए हैं

ज्यों बूंदों भरे मेघों को देख
सूरज जल सा जाता है
इन भीगे पलों में साथ तुम्हारा
रह रहकर खल सा जाता है

यूँ बरखा तेरी आँखों की
बूंदों को क्यूँ ले आती है
क्यों कालिख इन काले मेघों की
मेरे दिल पर छा जाती है

क्यों मेघों के मध्य तुम्हारा
चेहरा उभर सा आता है
बूंदों के गिरने के स्वर में
वक़्त ठहर सा जाता है

कब आओगे ओ मीत मेरे
जो अधरों पे हों गीत मेरे
सूखे नयनों से ही तेरे
दर्शन को अब मैं तरसूँ
आओ कि इस सावन में
मैं भी घन बन बरसूँ...

Sunday, 27 July 2014




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