बचपन से जो कुछ भी सीखा है
और दुनिया ने सिखाया है
उस ज्ञान को भुलाना चाहता हूँ
और इसी चाहत में
मैं खुद से रोज़ इक जंग लड़कर
हार जाता हूँ,
वे कहते हैं कि ये दुनिया
सबकी नहीं है, नहीं होगी
मैं उनकी सोच और दुनिया पर
जी भर मुस्कुराता हूँ
मैं खुद को तोड़ता मरोड़ता फिर से बनाता हूँ ..
मेरे अगल बगल आर पार
तैरती हैं कुछ चीरती नज़रें
रोती, अट्टहास करती, उपेक्षा लिए खुद में
मेरे अस्तित्व पर चीखती नज़रें
इन नज़रों के जादू से खुद को बचाने की ज़द में
मैं अपनी नजरो को बदलना चाहता हूँ
और इसी चाहत में
मैं खुद से रोज़ इक जंग लड़कर
हार जाता हूँ,
मैं खुद को तोड़ता मरोड़ता फिर से बनाता हूँ ..
उनकी कही बातों को
मन में बिठा करके
उनके बनाये आदर्शों को
माथे से लगा करके
तुम दिनभर ढूंढते हो सब जगह परछाइयां अपनी
मैं पागल हूँ, तुम्हारे विश्वास की
खिल्ली उड़ाता हूँ
मैं खुद को तोड़ता मरोड़ता फिर से बनाता हूँ ..
तुम्हारे 'मिथ-विश्वास' के दर्द
जब तुम्हें तोड़ जाते हैं
तुम्हारी ज़िन्दगी के मालिक
तुम्हे पिंजरे में छोड़ जाते हैं
मैं चाहता नहीं पर
तब मेरे भीतर भी इक हूक उठती है
मैं खुद को ही बेंधता
खुद पर तिलमिलाता हूँ
मैं खुद को तोड़ता मरोड़ता फिर से बनाता हूँ ..
उन्होंने बना दिया है मुझे कुछ इस तरह कैदी
मैं अपने भीतर से खुद के टुकड़े करता हूँ
और अलग अलग कर
उन्हें पहचानने की कोशिश करता मैं
आजादी की चाहत में
बार बार बिखर जाता हूँ,
मैं खुद को जोड़ता बटोरता फिर से बनाता हूँ ..
Excellent work bro....
ReplyDeleteLong journey is ahead :)
will keep learning from you Bhaiya :)
Deleteहर दिशा मे तुम ही तुम हो,आवरण कोई गहरा नही!हो कालजयी तुम जय पे कोई पहरा नही |
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