मैं वक़्त से तीन घंटे पहले स्टेशन आ गया था। डिस्प्ले बोर्ड बता रहा था कि ट्रेन लेट थी। मुझे आए दो घंटे हुए थे। मैं प्लेटफॉर्म पर लगी स्टील की एक बेंच पर बैठा हुआ था।
अगल बगल लोग आ जा रहे थे। शाम हो रही थी पर धूप अभी खत्म नहीं हुई थी। कुछ लोग बेंच के बिल्कुल पास खड़े थे और मुझे तिरछी निगाह से थोड़ी थोड़ी देर पर देख रहे थे। मैं बेंच पर किसी को बैठने नहीं देना चाहता था। एक लड़का जैसे बेंच की तरफ आया, मैंने अपना बैग बेंच के खाली किनारे तक सरका दिया। उसने मुझे देखा और चला गया। वह जिस तरफ़ गया मैं उसी सीध में देख रहा था। उस तरफ़ से कोई औरत आ रही थी। मैंने जल्दी अपने बैग से पानी की बोतल निकाली और उसे बीच की खाली जगह पर रख दिया। अब बेंच खाली नहीं थी। उसपर तीन चीज़ें थीं। मेरा बैग, पानी की बोतल और मैं। ये तीन चीज़ें तीन लोगों की भी हो सकती थीं। मुझसे कोई आकर पूछता तो मैं उसे बताता कि ये बैग मेरा नहीं है और न ही पानी की बोतल। कोई और वहाँ अपनी चीज़ें छोड़कर कोई भूला काम निपटाने गया था।
औरत को मुझपे शक़ न हो इसलिए मैं अपने फ़ोन में देखने लगा।
वाणी का मैसेज आया था, "कहाँ हो तुम?"
मैंने सामने देखा। वो औरत बिना रुके निकल गई। उसने मेरी तरफ देखा भी नहीं।
मैंने मैसेज टाइप किया, "मैं प्लेटफार्म पर आ गया हूँ, तुम कहाँ हो?"
रिप्लाई आया, "मैं स्टेशन पहुँच गई।"
मैंने लिखा, "तुम वहीं रुको, मैं बाहर आ रहा हूँ।"
बेंच के अगले बगल खड़े लोग चले गए थे। बेंच से थोड़ी अधिक दूरी पर कुछ और लोग खड़े थे पर शायद उन्हें इस बेंच पर बैठने में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
उसका मैसेज आया, "नहीं! तुम रुको, मैं आ रही हूँ। प्लेटफॉर्म नंबर क्या है।"
मैंने टाइप किया - "3", और भेज दिया।
मैंने अपनी बायीं जेब में हाथ डाला। इयरफोन सही सलामत थे। मैंने पानी की बोतल खोल कर एक घूंट पानी पिया और बोतल फिर वही रख दी। बेंच पर।
मेरा फ़ोन वाईब्रेट होने लगा। वाणी का फ़ोन था।
उठाते ही उसने पूछा, "किस तरफ हो तुम?"
"बेंच पर बैठा हूँ"
"किधर?.. अच्छा रुको, देख लिया मैंने तुम्हें। तुम वही बैठे रहो, मैं आ रही हूँ।"
मैंने दायीं तरफ़ देखा। वाणी हाथ में फ़ोन लिए बेंच की तरफ़ आ रही थी। उसका बैग शायद उसने स्कूटी में रख दिया था। वह मुस्कुरा रही थी। मैंने बेंच पर रखा बैग और पानी की बोतल नहीं हटाई। मुझे याद नहीं मैं मुस्कुराया या नहीं। वह ठीक मेरे बगल में बेंच के सामने आ कर खड़ी हो गई और बोली , "कहाँ बैठूँ मैं?"
वह मुस्कुरा रही थी और मेरे बैग और पानी की बोतल की तरफ देख रही थी। मैंने बैग को अपनी तरफ खींचा और पानी की बोतल अपने हाथ में ले ली। मैंने बेंच की खाली जगह को देखा। वह वहीं बैठ गई। मेरे मन में आया कि उससे कहूँ कि बेंच से उठ जाओ। मैं भी उठ जाऊँगा। फिर मैंने उसके चेहरे को बेरुखी से देखा।
"ट्रेन कितने बजे की है?" उसने पूछा
"ट्रेन लेट है." मैंने कहा और मैं सामने देखने लगा। थोड़ी बहुत जितनी धूप बाकी थी, उससे रेल की पटरी का किनारा चमक रहा था।
"क्या सोच रहे हो?" वह मेरे चेहरे की ओर देख रही थी। मैं सामने देखता रहा।
"कुछ भी तो नहीं।" मैंने मुस्कुराने की कोशिश अधूरी छोड़ दी।
उसने मेरे बालों को छुआ। उसने बताया कि वहाँ कुछ लगा हुआ था। मुझे नींद आ रही थी। मेरा मन हुआ उसकी गोद में सिर रख कर सो जाऊँ। फिर उसने मुझसे कहा कि उसे पता नहीं मैं हमेशा क्या सोचता रहता हूँ। उसने मुझसे कुछ कहने के लिए कहा। मैंने फ़ोन में देख कर बताया कि ट्रेन और लेट गई है। उसने मुझसे कॉलेज और बरसात के बारे में बातें की। फिर उसने मुझे बताया कि उसने आज काम से छुट्टी ली थी पर फिर भी उसे काम करना पड़ा। उसने कहा कि उसे लगता है कि उसे कोई बीमारी है। फिर उसने एक साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर के बारे में बताया। मुझे लगा ये बीमारी मुझे भी है। इससे पहले मुझे जितने लोगों ने जितनी बीमारियों के बारे में बताया, मुझे लगता रहा कि ये सारी बीमारियाँ मुझे भी हैं। पर मैंने सोचा था मैं कैंसर से मरूँगा। मैंने फ़ोन में देखा, ट्रेन और लेट हो गई थी। मैंने उससे चले जाने को कहा। उसने कहा वह रुकना चाहती है। मैंने बताया कि ट्रेन 12 बजे रात तक भी आ सकती है। इसलिए उसका चले जाना ठीक रहेगा। वह बोली वह जा रही है और जब ट्रेन आ जाए तो मैं उसे फ़ोन करके बता दूँ। या अगर ट्रेन ज्यादा लेट हो तो जाने के प्लान पर दोबारा विचार किया जा सकता है। मैंने कुछ नहीं कहा और सिर हिला दिया। जाते जाते वह मुस्कुराई और बोली, "बाय।" मैं अपना सिर घुमा कर सामने की ओर देखने लगा। धूप खत्म हो गई थी और सामने वाली रेल की पटरी की चमक भी। ट्रेन और लेट हो गई थी। लोग अपने घर जाने लगे थे। प्लेटफार्म सूना लगने लगा था। मैं बेंच से उठा और अपनी चीज़ें वही रख कर प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक टहल आया। उस रात उस प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन नहीं आई। मैं इंतज़ार करता रहा। उसके बाद मैंने कविताएँ लिखना छोड़ दिया।
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